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फटकार यह हमेशा की वही पुरानी कहानी है; ''शोरबे के बदले अपने जन्माधिकार को बेचना'' (मैं 'जन्माधिकार' का अर्थ समझती हूं भागवत सिद्धि तक सर्वप्रथम पहुंचने की सम्भावना या योग्यता) । ४ मई, १९३२
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वह अशुभ जिसे भगवान् ने भुला दिया है उसे हर एक को भूल जाना चाहिये । १८ दिसम्बर, १९३३
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किस अधिकार से तुम चाहते हो कि तुम्हारी इच्छा औरों को प्रभावित करे ? हर एक को स्वतन्त्र होना चाहिये । केवल गुरु को ही अपनी इच्छा उस शिष्य पर आरोपित करने का अधिकार है जिसने उन्हें चुन लिया हो । २१ मार्च, १९३४
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वास्तविक आवश्यकता के साथ-साथ सच्चा समाधान आता है । २ जुलाई, १९३६
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हमें उस सबसे बचने की सावधानी हमेशा रखनी चाहिये जो हमारे अन्दर दिखावे के भाव को प्रोत्साहित करता हो ।
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लोग जितने अधिक महत्त्वहीन होते हैं उतनी ही अधिक गम्भीरता से अपने-आपको लेते हैं । १५ दिसम्बर, १९४४
* २८२ उपाधियां मनुष्य को कोई मूल्य नहीं प्रदान करतीं, जब तक कि वे भगवान् की सेवा में न प्राप्त की गयी हों ।
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किसी भी उक्ति को उसकी अपनी गरिमा से जांचना चाहिये, न कि उस हस्ताक्षर की महानता से जिसके साथ वह टंकी हो ।
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कोई उक्ति तभी अच्छी होती है जब वह किसी हस्ताक्षर के बिना भी अच्छी हो ।
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बहुत अधिक बोलने से व्यक्ति बुद्धिमान् नहीं बनता; व्यक्ति तभी बुद्धिमान् कहा जाता है जब वह क्षमाशील हो, भय या शत्रु से रहित ।
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जो तुमसे पवित्र वचन सुनने की आशा करते हैं उनके साथ पवित्र वचन बोलने से ज्यादा आसान कुछ नहीं है लेकिन ऐसे लोगों को पाना ज्यादा मुश्किल है जो पवित्र वचन सुनना चाहते हों ।
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मैंने श्रीअरविन्द के शिष्यों को यह बताने की आवश्यकता नहीं समझी कि आश्रम, पहली अप्रैल को लोगों को बुद्ध बनाने की मूर्खतापूर्ण आदत का अनुकरण करने का स्थान नहीं है ।
लेकिन अब मैं देखती हूं कि कुछ आश्रमवासियों ने ये मूर्खताएं करने के लिए मेरी इस चुप्पी का फायदा उठाया, और मुझे इसके लिए खेद है । १ अप्रैल, १९४५
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चीजों को छिपाने की कोशिश मत करो; तुम जो कुछ छिपाना चाहते २८३ हो वह और भी अधिक प्रत्यक्ष बन जाता है । १९ अप्रैल, १९५२
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केवल उन्हें ही अपने हस्ताक्षर किसी को देने चाहियें जो लिखित शब्द के साथ-साथ भागवत शक्ति और चेतना का संचार कर सकते हों । १० अप्रैल, १९५४
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आओ, हम यह आशा करें कि आन्तरिक सिद्धि बाहरी सिद्धि के बराबर सिद्ध होगी। २६ अप्रैल, १९५४
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ज्यादा अच्छा है कि मनुष्य पर भरोसा न रखो । जुलाई, १९५९
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निष्ठावान् होना मनुष्य के स्वभाव में नहीं है ।
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माताजी, भगवान् के इतने सारे मनुष्यो की रचना क्यों की ?
एक अच्छा मनुष्य पाने की आशा में ।
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ओर फिर भी भगवान् हर जगह हैं, बुद्धिमान् में भी और अज्ञानी में भी ।
* . धरती पर मनुष्य की उत्पत्ति के साथ सबसे पहले आयी आग को वश २८४ में करने की सामर्थ्य । पार्थिव जीवों में मनुष्य पहला था जिसने अंगीठी में ऊष्माभरी आग सुलगायी, जिसने अंधेरे में प्रभा फैलाते प्रकाश को चमकाया । अग्नि पर प्रभुत्व पशु से मनुष्य की श्रेष्ठता का स्पष्ट चिह्न है ।
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केवल एक ही चीज, मनुष्य का विशेषाधिकार अगर वह सचमुच मनुष्य है : नैतिक और शारीरिक स्वच्छता ।
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तुम तब तक आध्यात्मिक प्रगति की आशा कैसे कर सकते हो जब तक तुम ऐसी सौदेबाजी ओर हिसाब-किताब से बद्ध रहोगे ? १७ दिसम्बर, १९५९
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मैं केवल एक ही क्षमायाचना को स्वीकार कर सकती हूं; वह यह है : ''मैं यह दुबारा कभी न करूंगा'' , और अपना वचन निभाओ । बाकी सब दिखावा है । ७ अप्रैल, १९६३
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एक चीज न करना बहुत आसान है । तुम्हें अब शहर के सिनेमा हॉल में कभी नहीं जाना चाहिये, कभी नहीं, और दोष मिटा दिया जायेगा । हृदय पार्थिव मानवीय जगत् का है; अन्तरात्मा वैश्व आध्यात्मिक जगत् की है । आशीर्वाद । ७ मार्च, १९६५
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किसी लड़की को उसे पसन्द होते हुए भी चूमना काफी भद्दी और अशोभनीय चीज है लेकिन किसी लड़की को उसे पसन्द न होने पर भी चूमना गंवारू और मूर्खताभरी हरकत है । * २८५ कम-से-कम एक लाख अमरीकियों ने L.S.D. और मेस्केलीन द्वारा अनुभूतियां प्राप्त की हैं-- ऐसी अनुभुतियां जिन्हें साइकेडेलिक कहा जाता है , जिसका अर्थ ''चतेना का विस्तार'' । ये स्वापक अमेरिका में वैध ठहराये जा सकें राष्ट्रव्यापी आदोलन चल रहा है । यहां साइकेडेलिक मैगजीन की एक प्रति प्रस्तुत है (१९६६, न. ७) । इसमें एक ऐसा लेख है , जिसमें मेस्केलीन द्वारा उच्च यौगिक अवस्था प्राप्त का दावा किया गया है ।
पत्रिका में चिहिनत हिस्सा मैंने पढ़ लिया है । एक बात निश्चित है-- ये अनुभूतियां आध्यात्मिक नहीं हैं और इन्हें यह नाम देना वास्तविक आध्यत्मिक अनुभूति के बारे में पूर्ण अज्ञान का प्रमाण है ।
स्वापक का प्रभाव या तो प्राण में निरर्थक भटकना होगा या सत्ता के अवचेतन भाग में सोये हुए किसी अवचेतन संकेत का जागना होगा ।
ऐसे निरर्थक विषय पर और कुछ कहने के लिए समय नहीं है । १९६८
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सुख को ढूंढना कष्ट को बुलाना है क्योंकि ये एक ही चीज के चित और पट हैं ।
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वह सब जो व्यक्ति की चेतना को सत्ता के सबसे अधिक जड़- भौतिक स्तरों में ही बनाये रखने में सहायक होगा, एक अपराध होगा ।
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पारितोषिक वस्तुत: जीवन के निम्न स्तर की चीजें हैं--लेकिन अगर हम अब भी वहीं हैं...
* २८६ (मोटरकार के चुनाव के बारे में)
क्या तुम थके बिना और रास्ते में अधिक समय लगाये बिना जाना चाहते हो, या तुम ठाठबाटवाले और बड़े आदमी जैसे दीखना चाहते हो ?
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चीजों से कतराना भी कामना के जितना ही खराब है- अत: पंखा ले लो और भगवान् की इच्छा को पूरा होने दो, क्योंकि अन्तत: उनकी इच्छा ही सफल होती है !
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भागवत इच्छा जानने के लिए तुम्हें पसन्दों और कामनाओं से रहित होना चाहिये ।
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सतही प्रतिक्रियाएं वाच्छनीय नहीं होतीं।
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ऐसी कम्पनी जिसका कोई नाम नहीं, कोई व्यापार नहीं, कोई पैसा नहीं, वह कम्पनी नहीं, धोखेबाजी है ।
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ईमानदारी से व्यापार करना अधिकाधिक जोखिम भरा होता जा रहा है ।
धोखा न देने के साथ-साथ धोखा न खाने का भी संकल्प ।
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(एक महिला के बारे में जो श्रीअरविन्द की उत्तराधिकारिणी होने दावा करती थी)
यह सब एकदम-से हमेशा के लिए बन्द होना चाहिये । यह एकदम जालसाजी २८७ है और जो लोग जालसाजी करते हैं उन्हें जेल जाना चाहिये१ या कम-से- कम उन्हें मिथ्यात्व को फैलाने और सीधे-साधे लोगों को छलने नहीं देना चाहिये । उसकी पहली सभी भविष्यवाणियां असफल रहीं । ये सब भी उसी तरह असफल होंगी और जो उसकी बात पर विश्वास करते हैं वे केवल बुद्ध बन रहे हैं ।
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(एक साधक के बारे में जो आश्रम में आने से पहले संन्यासी रह चुका था । अपने किसी ध्यान में उसने अपने चारों तरफ सांप ही सांप देखे । )
जरूर उसके अन्दर संन्यासी के गेरुआ वस्त्र त्यागने के परिणामों के बारे में एक भय (शायद अवचेतन) होगा और यह भय सांपों के आक्रमण आदि में अनूदित हो जाता है । तुम उसे कह सकते हो कि डरे नहीं और यह भी कि मुझे सूचना मिल गयी है और उसे कोई कष्ट नहीं पहुंचायेगा ।
वह इस विश्वास के साथ फिर से ध्यान करने की कोशिश करे कि उसकी रक्षा की जा रही है--लेकिन यह कोशिश पहले उसे औरों के साथ नहीं करनी चाहिये । अगर उसका ध्यान शान्ति से हो जाये तो वह फिर से औरों के साथ ध्यान कर सकता है ।
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उसने मेज पर मेरे सामने कागज का एक पुर्जा खिसकाया जिसे देखकर लगता था कि किसी कापी से फाड़ा गया होगा, उसमें कोई पत्र शीर्षक न था या वह कोई सरकारी कागज नहीं था, उस पर उसने भद्दे लेख में यह लिखा था कि अगर आवश्यकता होगी तो मैं अतिरिक्त टिकटों के लिए पैसा देने का वादा करता हूं ।
मुझे वह उस गरीब यात्री की तरह लगा जिसे जंगल के किसी कोने
१ यहीं पर माताजी ने हाशिये में ''मजाक'' शब्द लिख दिया--यह बतलाने के लिए कि वे यह नहीं चाहती थीं कि आश्रम अदालत में जाये । २८८ में डाकुओं के दल ने घेर लिया हो और हाथ में पिस्तौल लिये, उसे छोड़ने से पहले जेबें खाली करने के लिए कह रहे हों । मैं क्षण भर के लिए हिचकिचायी लेकिन मैं खिलाड़ी हूं और मैंने यह सोचते हुए हस्ताक्षर कर दिये ''देखेंगे, वे कितनी दूर तक जाने का साहस रखते हैं ।''
इस जगत् में निःस्वार्थ होने के लिए तुम्हें बहुत मूल्य चुकाना पड़ता है !
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( एक बहुत धनी व्यक्ति आश्रम में आया । जाते समय उसने यह बहाना बनाते हुए कि उसके हाथ में पर्याप्त धन नहीं है, नाम- मात्र की भेंट की । लोकिन घर लौटते समय यात्रा के दौरान गुण्डों ने उसे पकड़ लिया और उसकी जान खतरे में पड़ गयी; छूटने के लिए उसने तुरन्त ५००० रु. दे दिये । जब यह घटना को माताजी को सुनायी गयी, तो उन्होंने लिखा :)
यह-की-यही कहानी, जरा-से हेर-फेर के साथ, कितनी, कितनी बार सुनायी जा सकती है !
और भागवत कृपा की कार्य-क्षमता की कहानियों के बारे में क्या कहोगे ?
शायद वे संख्या में कम हों, लेकिन कितना अधिक आश्वासन देने वाली होती हैं !
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जब तुम भगवान् के लिए सब कुछ बलिदान करने की बात करते हो तो इसका यह अर्थ होता है कि तुम उन चीजों से बहुत आसक्त हो, उन चीजों का तुम्हारे लिए बहुत मूल्य है, फिर भी तुम भगवान् के लिए उन्हें छोड़ने को तेयार हो ।
असल में तो तुम्हें भगवान् के सिवाय और किसी वस्तु से या व्यक्ति से आसक्त न होना चाहिये, और उनके अलावा तुम्हारे लिए किसी भी चीज का कोई मूल्य नहीं होना चाहिये । ओर ऐसी स्थिति में तुम भगवान् २८९ के लिए बलिदान करने की बात नहीं कर सकते ।
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हर चीज संक्रामक है । हर अच्छी चीज और हर बुरी चीज के अपने स्पन्दन होते हैं । अगर तुम उन स्पन्दनों को पकड़ लो तो, तुम उस चीज को पा लेते हो । सच्चा योगी इन स्पन्दनों को जानता है और उनका उपयोग कर सकता है; इसी तरह यह तुम्हें शान्ति इत्यादि दे सकता है । यहां तक कि तथाकथित दुर्घटनाएं भी संक्रामक होती हैं । तुम दूसरों का दुःख पकड़ लेते हो और उसी तरह दुःखी हो सकते हो ।
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सौन्दर्यबोध के दृष्टिकोण से मैं कह सकती हूं कि गेहुआं रंग सफेद से ज्यादा अच्छा होता है, लेकिन यह सोचना एकदम असंगत और मूर्खतापूर्ण है कि कोई केवल अपने रंग के कारण अधिक अच्छा या बुरा है । अफ्रीका का नीग्रो यह मानता है कि उसका रंग सबसे अधिक सुन्दर है । जापानी सोचता है कि उसका रंग किसी भी दूसरे से बेहतर है । रंग को लेकर ऐसी धारणा बहुत ही निम्न कोटि की चीज है । यह चेतना के बहुत ही निम्न स्तर का संकेत देती है--ऐसी चेतना का जो निश्चेतना से अभी-अभी उठ रही हो । यह कोई विचार नहीं, कोई संवेदना नहीं, बल्कि उससे भी निम्नतर कोई चीज है । जब तुम रंग के पूर्वाग्रह की सीमा में सोचते हो तो तुम्हारा अपना चैत्य तुम्हारी मूर्खता पर हंसता है; वह जानता है कि वह सफेद, गेहुएं, पीले, लाल, काले और सभी तरह के शरीर में रह चुका है । जब तुम्हारे अन्दर इस तरह का पक्षपात जागे, तो उसे अपनी चेतना के सामने ले आओ ओर वह गायब हो जायेगा ।
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कुछ लोग हैं जो अपने पैरों पर खड़े रह सकते हैं । वे कोई चीज इस- लिए करते हैं क्योंकि वे मानते हैं कि उसे करना अच्छा है । वे अपने आपको निर्बाध रूप से गुरु को अर्पित कर देते हैं और उनके बताये मार्ग पर चलते हैं । लेकिन हर समय यह एक निर्बाध क्रिया होती है । कुछ और २९० हैं जो दास होते हैं । वे जो कुछ करते हैं उसके लिए कोई सामाजिक या शासकीय मान्यता चाहते हैं । उनके अन्दर आत्मविश्वास केवल तभी हो सकता है जब कोई सत्ताधारी उन्हें मान्यता दे । यह दास-मनोवृत्ति है । २९१
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